Company Kya Hai, अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं

आज हम इस आर्टिकल कि मदद से समझेंगे कि Company Kya Hai और इसके साथ ही इसके विभिन्न प्रकार के पहलुओं के बारे में भी समझेंगे जैसे कि:

Highlights:

  1. Company Kya Hai (कंपनी किसे कहते है)
  2. कंपनी का अर्थ क्या है
  3. कंपनी कि परिभाषा
  4. कंपनी कि विशेषताएं
  5. कंपनी के गुण और लाभ
  6. कंपनी के दोष

Company Kya Hai (कंपनी किसे कहते है):

हम सभी जानते है कि व्यापार में कई सारी कमियां होती है तो इन सभी कमियों को दूर करने के लिए साझेदारी संगठन का जन्म हुआ ठीक उसी प्रकार साझेदारी संगठन में भी कुछ कमियां पैदा हुयी जिसकी कमियों को दूर करने के लिए व्यावसायिक संगठन का जन्म हुआ जिसे हम कंपनी कहते है.

भारत में कंपनी का उद्गम कम्पनी अधिनियम, 1850 के साथ ही हुआ, जिसके बाद इस अधिनियम पर समय के साथ संशोधन होते गए, सन् 1936 संशोधित कंपनी अधिनियम पारित हुआ।

उसके बाद 1956 से नवीन कम्पनी अधिनियम लागू हुआ। कई बार संशोधन होने के बाद वर्तमान में कम्पनी अधिनियम, 2013 कार्यरत है।

कम्पनी का अर्थ (Meaning of Company):

चलिए समझते है कि Company Ka Arth क्या है ?

कम्पनी एक ऐसा व्यावसायिक संगठन है जो कि ऐच्छिक लाभ अर्जित करने उद्देश्य से किया जाता है, इसके साथ ही कम्पनी में कई लोग मिलकर अपना पूँजी लगाते हैं, जिसके वजह से इसे संयुक्त पूंजी कम्पनी भी कहा जाता है।

कंपनी के द्वारा किये जाने वाला कारोबार स्थायी भी होता है और इसके साथ ही यह सार्वमुद्रा के द्वारा संचालित होता है

कंपनी का परिभाषा (Definition of Company in Hindi):

Company Ki Paribhasha कुछ इस प्रकार है:

प्रो. एल एच हैने के अनुसार, कम्पनी विधान द्वारा निर्मित एक कृत्रिम व्यक्ति है जिसका उसके सदस्यों से पृथक स्थायी अस्तित्व होता है और जिसके पास सार्वमुद्रा होती है

लार्ड लिण्डले के मतानुसार, “कम्पनी ऐसे अनेक व्यक्तियों की एक संस्था है, जो द्रव्य या द्रव्य के बराबर का अंशदान एक संयुक्त कोष में जमा करते हैं तथा उनका प्रयोग एक निश्चित उद्देश्य के लिये करते हैं।

भारतीय कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2 (20) के अनुसार, “कम्पनी से आशय इस अधिनियम के आधीन निर्मित कम्पनी से है या किसी पूर्व के कम्पनी अधिनियम से बनी कम्पनी से है।

कम्पनी की विशेषताएँ (Characterstics of Company):

विधान द्वारा निर्मित कृत्रिम व्यक्ति:

किसी भी कम्पनी का निर्माण एक विधान के द्वारा किया जाता है जिसे हम स्वतन्त्र वैधानिक व्यक्तित्व प्राप्त होता है एक सामान्य व्यक्ति की तरह ही कम्पनी स्वयं अपने नाम पर व्यापार, अनुबन्ध और सम्पत्ति का क्रय-विक्रय कर सकता है, इसीलिए कंपनी के लिए कहाँ जाता है कि यह विधान के लिए निर्मित कृत्रिम व्यक्ति होता है

शाश्वत उत्तराधिकार:

इसका तात्पर्य यह है, कि कम्पनी का जीवन किसी भी सदस्यों पर आश्रित नहीं होता है। दुसरे शब्दों में कहाँ जाये तो किसी भी सदस्य कि मृत्यु या दिवालिया हो जाने पर कंपनी के अस्तित्व पर किसी भी प्रकार का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है

प्रतिनिधि व्यवस्था:

यह तो सभी जानते है कि किसी भी कंपनी में प्रायः सदस्यों कि संख्या अधिक होती है और सभी व्यक्ति का संचालन कार्य में भाग ले पाना यह सम्भव नहीं हो पाता है, इसीलिए समस्या को दूर करने के लिए संचालन की प्रतिनिधि व्यवस्था को अपनाया जाता है।

लाभ के लिये ऐच्छिक संघ:

हम सभी जानते है कि किसी भी कंपनी कि स्थापना का मुख्य उद्देश्य लाभ अर्जित करना होता है परन्तु इसके साथ ही समाज कि जटिल समस्या का निवारण करना भी होता है जिससे समाज कि भलाई हो सकें यहीं कारण है कंपनी को लाभ प्राप्त होता है

सदस्य संख्या:

कंपनी भी दो प्रकार कि होती है सार्वजनिक कम्पनी तथा निजी कम्पनी। वहीं सार्वजनिक कम्पनी में कम से कम 7 सदस्य तथा अधिकतम निर्गमित अंशों की संख्या के बराबर तक हो सकती है। ठीक इसी प्रकार निजी कंपनी में न्यूनतम संख्या दो तथा अधिकतम 50 तक हो सकती है।

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अत्यधिक वित्तीय साधन:

व्यावसायिक संगठनों की तुलना में संयुक्त पूँजी कम्पनी में वित्तीय साधन अधिक पाए जाते है और कंपनी भी समय समय पर अपना वार्षिक लेखों को प्रकाशित करती है, जिससे जनता का कम्पनी में विश्वास उत्पन्न होता है

स्थायी अस्तित्व:

किसी भी कंपनी का जीवन काल व्यावसायिक संगठन के रूप में अधिक होता है परन्तु इसके सदस्यों पर निर्भर नहीं होता है

सीमित दायित्व:

सीमित दायित्व में, एक कम्पनी में हर सदस्य का दायित्व उसके खरीदे हुए अंशों के मूल्य तक ही होता है। जब हानि होती है, तो सदस्यों की व्यक्तिगत सम्पत्तियां ऋणों के भुगतान के लिए उपयोग नहीं की जा सकती हैं। इसलिए, सीमित दायित्व के कारण लोग अशों को खरीदते हैं।

डॉ. कैडमेन के शब्दों में व्यावसायिक ऋणों के प्रति दायित्व को सीमित करने का विशेषाधिकार कम्पनी के प्रारूप का एक प्रमुख लाभ है

अंशों का हस्तान्तरण:

कम्पनी संगठन में अंशधारी अपने हिस्सों का हस्तान्तरण बिना किसी परेशानी के कर सकता है और आवश्यकतानुसार इसे बेच भी सकता है इस प्रकार कि सुविधा व्यावसायिक प्रारूपों में नहीं पाई जाती है

कुशल प्रबन्ध तथा संचालन:

एक कंपनी का प्रबन्धक यानी कि मैनेज करने वाले अलग अलग व्यक्ति हो सकते है , यानी कि ऐसे व्यक्ति होते है कम्पनी के संचालन में विशेषज्ञ होते हैं। कम्पनी का प्रबन्ध अंशधारियों में से चुने गये संचालकों द्वारा किया जाता है।

वृहत् पैमाने के उत्पादन के लाभ:

कंपनी के पास पर्याप्त मात्रा में पूंजी होने के कारण काफी मात्रा में उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है साथ ही इसके अंतर्गत उत्पादन आधुनिकतम स्वचालित यन्त्रों व मशीनों की सहायता से श्रम विभाजन, वैज्ञानिक प्रबन्ध के कार्य भी किये जा सकते है

जिससे कि न्यूनतम लागत मूल्य पर अधिकतम उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है, जिससे कंपनी को अधिक लाभ होता है

जनता का विश्वास:

कंपनी अपना वार्षिक विवरण को प्रकाशित करता रहता है जिससे आम जनता को कंपनी कि सारी गतिविधियों कि जानकारी होती है जिससे आम जनता का कंपनी पर विश्वास बढ़ता है इस प्रकार कम्पनी पर समाज, कर्मचारी, विनियोगकर्ता, बैंक तथा उपभोक्ताओं का विश्वास कायम हो जाता है।

जोखिम का विभाजन:

एक कंपनी में जोखिम का भी अपेक्षाकृत कम होता है और मुख्य कारण है कि कम्पनी व्यवसाय में जोखिम का विभाजन अधिक लोगों में बट जाता है, जिससे कम्पनी पर जनता का विश्वास बना रहता है।

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कम्पनी के अवगुण या दोष (Demerits or Disadvantages of the Company):

  1. कंपनी कि स्थापना करना ही सबसे बड़ी समस्या के बराबर होता है, क्योंकि इसके लिए अनेक वैधानिक शर्तों की पूर्ति करना आवश्यक होता है।
  2. प्रवर्तक कम्पनी की स्थापना करने के बाद यानी कि कंपनी के जन्मदाता होने के कारण उसका शोषण करते हैं। कम्पनी की स्थापना के लिए वे कार्यों का बहुत ज्यादा श्रम वसूल करते हैं।
  3. कंपनी में ये देखा गया है कि गोपनीयता का अभाव होता है यानी कि व्यापारिक रहस्यों को गुप्त रखना प्रायः असम्भव होता है।

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