इस आर्टिकल में लघु उद्योग (Laghu Udyog) और कुटीर उद्योग (Kutir Udyog) के बारे में संछेप में समझेंगे:
Highlights:
- लघु उद्योग क्या है (Laghu Udyog Kya Hai)
- लघु उद्योग का अर्थ (Laghu Udyog Ka Arth)
- कुटीर उद्योग क्या है (Kutir Udyog Kya Hai)
- कुटीर उद्योग का अर्थ (Kutir Udyog Ka Arth)
- लघु उद्योग और कुटीर उद्योग में अंतर (Laghu Udyog Kutir Udyog Mein Antar)
- कुटीर उद्योगों का वर्गीकरण (Kutir Udyog ke Prakar)
लघु उद्योग क्या है (Laghu Udyog Kya Hai):
भारतीय अर्थव्यवस्था में कुटीर एवं लघु उद्योगों का महत्वपूर्ण स्थान है। महात्मा गांधी के शब्दों में, “भारत का कल्याण उसके कुटीर उद्योग में निहित है।” योजना आयोग के अनुसार, “लघु एवं कुटीर उद्योग हमारी अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग हैं
जिनकी कभी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है।” श्री मोरारजी देसाई के अनुसार, “ऐसे उद्योगों से देहाती लोगों को जो अधिकांश समय बेरोजगार रहते हैं, पूर्ण अथवा अंशकालिक रोजगार मिलता है।”
लघु उद्योग या लघु व्यवसाय ऐसे उद्योग हैं जो छोटे पैमाने पर वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करते हैं। ये उद्योग किसी देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मालिक मशीनरी, उद्योगों और संयंत्रों पर एक बार निवेश करता है, या लेना एक पट्टा या किराया खरीद है।
ये उद्योग एक करोड़ से अधिक का निवेश नहीं करते हैं। छोटे पैमाने के उद्योगों के कुछ उदाहरण कागज, टूथपिक, पेन, बेकरी, मोमबत्तियाँ, स्थानीय चॉकलेट आदि उद्योग हैं और ज्यादातर शहरी क्षेत्र में एक अलग इकाई के रूप में बसे हुए हैं।
लघु उद्योग का अर्थ (Laghu Udyog Ka Arth):
कुटीर उद्योग का अर्थ कुटीर उद्योग- एक छोटे पैमाने के उद्योग को प्रभावी ढंग से परिभाषित करने के लिए, पहले उद्योग के अर्थ के बारे में सीखना अनिवार्य है। उद्योग शब्द उन कंपनियों के एक समूह को संदर्भित करता है जो एक दूसरे से संबंधित हैं, जो उनके द्वारा की जाने वाली प्राथमिक व्यावसायिक गतिविधियों के आधार पर हैं।
इस प्रकार, लघु उद्योग उन साझेदारियों, निगमों या एकमात्र स्वामित्व को संदर्भित करते हैं जो निचले पैमाने पर कार्य करते हैं, एक छोटे कार्यबल को नियोजित करते हैं और सामान्य आकार के उद्योगों या व्यवसायों की तुलना में कम राजस्व उत्पन्न करते हैं।
कुटीर उद्योग का अर्थ (Kutir Udyog Ka Arth):
प्रशुल्क आयोग के अनुसार,
“कुटीर उद्योग-धंधे वे धंधे हैं, जो अंशतः परिवार के सदस्यों की सहायता द्वारा ही आशिक या पूर्णकालिक कार्य के रूप में किये जाते हैं।”
घर एवं लिंडाल के अनुसार,
“कुटीर उद्योग लगभग पूर्णतः घरेलू उद्योग होते हैं। ऐसे अधिकांश उद्योग स्थानीय स्रोतों से कच्चामाल प्राप्त करते हैं और अपना अधिकांश उत्पादन स्थानीय बाजारों में बेचते हैं। यह लघु अत्कार के ग्रामीण, स्थानीय और पिछड़ी तकनीकी वाले उद्योग होते हैं ।”
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लघु उद्योग और कुटीर उद्योग में अंतर (Laghu Udyog Kutir Udyog Mein Antar):
(DIFFERENCE BETWEEN SMALL AND COTTAGE INDUSTRIES IN HINDI)
लघु एवं कुटीर उद्योग में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं-
कुटीर उद्योग:
- कुटीर उद्योग मुख्यत: परिवार के सदस्यों द्वारा पूर्णकालीन या अंशकालीन धंधे के रूप में चलाये जाते हैं।
- कुटीर उद्योगों में हस्तक्रिया की प्रधानता रहती है।
- कुटीर उद्योग में परम्परागत वस्तुएँ बनायी जाती हैं।
- कुटीर उद्योग स्थानीय माँग को ही पूरा करते हैं।
- कुटीर उद्योगों में पूँजी का विनियोग नाम मात्र का होता है।
- कुटीर उद्योग प्राय: ग्रामीण एवं अर्ध शहरी क्षेत्रों में स्थापित होते हैं।
लघु उद्योग:
- लघु उद्योग सामान्य रूप से श्रमिकों व मशीनों की सहायता से मुख्य धंधे के रूप में चलाये जाते हैं।
- लघु उद्योगों में मशीनों की प्रधानता रहती है।
- लघु उद्योगों में आधुनिक वस्तुएँ बनायी जाती हैं।
- लघु उद्योग विस्तृत बाजार की माँग को पूरा करते हैं
- लघु उद्योगों में अधिक पूँजी लगाई जाती है।
- लघु उद्योग, प्रायः शहरी क्षेत्रों में स्थापित होते हैं।
कुटीर उद्योगों का वर्गीकरण (Types of Cottage Industries in Hindi):
(CLASSIFICATION OF COTTAGE INDUSTRIES)
कुटीर उद्योगों को दो भागों में बाँटा जा सकता है.
- ग्रामीण कुटीर उद्योग (Rural Cottage Industries)
- शहरी कुटीर उद्योग (Urban Cottage Industries)
कुटीर एवं लघु उद्योगों का महत्व:
- संतुलित आर्थिक विकास,
- कम पूँजी, अधिक उत्पादन,
- आय एवं सम्पत्ति का न्यायपूर्ण वितरण,
- व्यापार चक्रों के प्रभाव से मुक्त,
- बड़े उद्योगों के दोषों से मुक्ति,
- शीघ्र उत्पादन उद्योग,
- गाँवों का बहुमुखी विकास,
- कलात्मक वस्तुओं का उत्पादन,
- रोजगार में वृद्धि,
- कम तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता,
- आयात पर कम निर्भरता,
- बड़े उद्योगों के लिए पूरक ।
(IMPORTANCE OF COTTAGE AND SMALL INDUSTRIES)
भारतीय अर्थव्यवस्था में कुटीर एवं लघु उद्योगों के महत्व की निम्न बिन्दुओं के रूप में स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) संतुलित आर्थिक विकास:
बड़े पैमाने के उद्योगों को देश के सभी राज्यों में एक समान दृष्टिकोण से स्थापित नहीं किया जा सकता है । परिणामस्वरूप कुछ राज्य औद्योगिक दृष्टि से बहुत समृद्ध हो जाते हैं तथा दूसरे राज्य पिछड़ जाते हैं। इस दृष्टि से कुटीर एवं लघु उद्योगों को स्थापित करके सन्तुलित आर्थिक विकास किया जा सकता है ।
(2) कम पूँजी:
अधिक उत्पादन देश में पूँजी का अभाव है, जबकि यहाँ श्रम-शक्ति का बाहुल्य है । ऐसी स्थिति में कुटीर एवं लघु उद्योगों में थोड़ी पूंजी विनियोग करके अधिकतम उत्पादन किया जा सकता है ।
(3) शीघ्र उत्पादन उद्योग:
बड़े पैमाने के उद्यम को आज स्थापित किया जाता है तो उत्पादन दो-तीन वर्षों के बाद प्राप्त होता है, जबकि इन उद्योगों की स्थापना के तुरन्त बाद उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
(4) गाँवों का बहुमुखी विकास:
भारत गाँवों का देश है, यदि देश का विकास करना है तो सर्वप्रथम गाँवों का विकास करना चाहिए। गाँवों का विकास लघु एवं कुटीर उद्योग-धन्धों के माध्यम से किया जा सकता है।
(5) कलात्मक वस्तुओं का उत्पादन:
कलात्मक वस्तुओं का उत्पादन लघु एवं कुटीर उद्योग-धन्धे द्वारा ही किया जा सकता है। भारत की कुलात्मक वस्तुओं की माँग विदेशों में बड़े पैमाने पर की जाती है इससे विदेशी मुद्रा की प्राप्ति भी होती है।
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कुटीर एवं लघु उद्योग की समस्याएँ:
- कच्चेमाल की समस्या,
- मध्यस्थों द्वारा शोषण,
- वित्त की समस्या,
- तकनीकी समस्या,
- विक्रय की समस्या,
- बड़े उद्योगों से प्रतिस्पर्द्धा,
- एकरूपता का अभाव,
- संगठन का अभाव,
- कारीगर रूढ़िवादी व अशिक्षित,
- स्थानीय कर का भार,
- प्रशिक्षण की व्यवस्था का अभाव,
- जनता का सहयोग कम ।
(1) विक्रय की समस्या:
पूर्ण उद्योगों के उत्पादकों को माल बेचने की समस्यों का भी सामना करना पड़ता है। इन्हें बाजार सम्बन्धी परिस्थितियों का अच्छा ज्ञान नहीं होता है, जिससे इन्हें वस्तुओं का उचित मूल्य प्राप्त नहीं होता है।
(2) बड़े उद्योगों से प्रतिस्पद्ध:
लघु उद्योगों द्वारा जिन वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है उनकी कीमत बड़े उद्योगों द्वारा निर्मित वस्तुओं की कीमत से अधिक होती है। परिणामस्वरूप लघु उद्योगपतियों की वस्तुएँ बाजार में नहीं बिक पाती है। यह प्रतिस्पद्धां लघु उद्योगपतियों को बहुत महंगी पड़ती है।
(3) एकरूपता का अभाव:
कुटीर उद्योगों द्वारा निर्मित वस्तुओं में बहुत भिन्नता होती है। एकरूपता का अभाव पाया जाता है। विभिन्न स्थानों पर विभिन्न वस्तुएँ बिकती हैं। इससे उपभोक्ताओं को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
(4) संगठन का अभाव:
कुटीर उद्योग संगठित नहीं होते। अतः वे अपनी समस्याओं व कठिनाइयों को मिलकर दूर नहीं कर पाते। उनमें परस्पर सम्पर्क न होने के कारण सहयोग भी नहीं होता। दूर-दूर फैले होने के कारण इनका सम्पर्क नहीं हो पाता। इस कारण ये अभी तक अपना मजबूत संगठन नहीं बना पाये हैं।

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