जिस प्रकार शास्त्रियों में अर्थशास्त्र को परिभाषा के विषय में अनेक विचार है, ठीक उसी प्रकार मुद्रा की परिभाषा के विषय में भी वे एकमत नहीं है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि मुद्रा की कोई परिभाषा नहीं है अथवा उसकी परिभाषा देने की आवश्यकता नहीं है.
आज हम आपको इस आर्टिकल के माध्यम से मुद्रा के बारे में सम्पूर्ण जानकारी देंगे जैसे कि:
- मुद्रा क्या है (Mudra Kya Hai)
- मुद्रा का अर्थ (Mudra Ka Arth)
- मुद्रा कि परिभाषा (Mudra Ki Paribhasha)
- मुद्रा के कार्य (Mudra Ke Karya)
- मुद्रा का महत्व (Mudra Ka Mahtav)
मुद्रा क्या है (Mudra Kya Hai):
हिन्दी भाषा का शब्द “मुद्रा” अंग्रेजी भाषा के शब्द “Money’ का हिन्दी रूपान्तरण है जो लैटिन भाषा के शब्द ‘Moneta’ से बना है।
यह कहा जाता है कि किसी समय रोम में “देवी जूनो” (Juno) के मंदिर में मुद्रा बनायी जाती थी और देवी जूनी को ही मोनेटा कहा जाता था
इसके अलावा लैटिन भाषा में मुद्रा के लिए पैक्यूनियों शब्द का प्रयोग किया जाता है जो पैकस शब्द से बना है जिसका अर्थ है, पशुधन प्राचीन काल में पशुओं को भी मुद्रा के रूप में काम में लिया जाता था। इस दृष्टि से मुद्रा शब्द अति प्राचीन समय से हो प्रचलित है।
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भारत में मुदा शब्द का प्रयोग के लिए किया जाता था जो राजदरबार की ओर से किसी व्यक्ति को प्राप्त होता था। वास्तव में वर्तमान युग में भी मुद्रा एक संकेत चिन्मात्र है जिसके माध्यम से विनिमय का कार्य सम्पन्न किया जाता है।
वस्तुतः मुद्रा उन वस्तुओं में में है जिसकी कोई एक सही परिभाषा करना कठिन है। फिर भी अर्थशास्त्रियों से भिन्न-भिन्न प्रकार से मुद्रा को परिभाषित किया है।
अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से मुद्रा को दो गयी विभिन्न परिभाषाओं को निम्नांकित दो भागों में बाँटा जा सकता है-
मुद्रा कि परिभाषा (Mudra Ki Paribhasha):
सामान्य स्वीकृति पर आधारित परिभाषाओं में मार्शल, कॉन्स, रॉबर्टसन एलो सेलिगमेन पीगू आदि अशा को परिभाषाएँ आती हैं। इन अर्थशास्त्रियों द्वारा दी गयी परिभाषाएँ-
(1) प्रो. मार्शल के अनुसार: “मुद्रा के अन्तर्गत वे समस्त वस्तुएँ सम्मिलित की जाती हैं, जो किसी सम अथवा किसी स्थान में बिना संदेह या विशेष जाँच-पड़ताल के वस्तुओं तथा सेवाओं के खरीदने और खर्च चुकान के साधन के रूप में सामान्यत प्रचलित रहती हैं
(2) प्रो. कॉन्स के अनुसार, “मुद्रा वह वस्तु है जिसके द्वारा ऋण संविदा एवं मूल्य संविदा का भुगतान किया जाता है एवं जिसके रूप में सामान्य रूप-शक्ति का संचय किया जाता है
(3) रॉबर्टसग के शब्दों में, “मुद्रा वह वस्तु है, जो वस्तुओं के मूल्य के अन्य व्यापारिक दायित्वों के भुगतान में व्यापक रूप से स्वीकार की जाती है
(4) एली के अनुसार, “मुद्रा के अन्तर्गत से समस्त वस्तुएँ सम्मिलित होती हैं, जिन्हें समाज में स्वीकृति प्राप्त हो
(5) सैलिगमेन के शब्दों में, “मुद्रा वह वस्तु है जिसे सामान्य स्वीकृति प्राप्त हो
(6) प्रो. पीगू के अनुसार, “वह वस्तु जिसको विस्तृत क्षेत्र में विनिमय माध्यम के रूप में सामान्य स्वीकृति प्रत्यप्त हो और अधिकांश लोग उसे वस्तुओं की सेवाओं के भुगतान के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार हैं, उसे मुद्रा कहते हैं.
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मुद्रा के कार्य (Mudra Ke Karya):
आधुनिक समाज में मुद्रा अनेक महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करती है। मुद्रा ने हो आर्थिक विकास को संभव बनाया है। वास्तव में, मुद्रा का कार्य लेन देन को इतना सरल और सस्ता बनाना है कि उत्पादन में जितना भी माल बने वह नियमित रूप में उपभोक्ताओं के पास पहुँचता रहे और भुगतान का क्रम निरन्तर चलता रहे।
इस प्रकार आधुनिक मुद्रा वाणिज्य के लिए पहिये का कार्य करती है। लेकिन इस कार्य के अलावा उसे अन्य कई कार्य सम्पन्न करने होते हैं। प्रो. किनले ने मुद्रा के कार्यों को प्रमुख रूप से निम्न प्रकार विभाजित किया है-
- प्राथमिक कार्य
- गौण कार्य
- आकस्मिक कार्य
- अन्य कार्य।
मुद्रा के कार्य (Mudra Ke Karya):
- मुद्रा के प्राथमिक कार्य- विनिमय का माध्यम, मूल्य का मापक
- मुद्रा के गौण कार्य- भावी भुगतानों का आधार, मूल्य संचय को आधार, क्रयशक्ति का हस्तांतरण ।
- मुद्रा के आकस्मिक कार्य- साख का आधार, आय के वितरण में सहायक, पूँजी के सामान्य रूप का आधार, उपभोक्ता को सम-सीमान्त उपयोगिता प्राप्त करने में सहायक ।
- मुद्रा के अन्य कार्य- इच्छा की वाहक, तरल सम्पत्ति का रूप, भुगतान क्षमता का सूचक ।
विनिमय का माध्यम: मुद्रा का सबसे महत्वपूर्ण कार्य विनिमय का माध्यम है । मुद्रा ने विनिमय माध्यम का कार्य करके वस्तु विनिमय अर्थव्यवस्था की कठिनाइयों को समाप्त कर दिया। है। मुद्रा के आविष्कार ने विनिमय को सरल बना दिया है ।
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वस्तु और सेवाओं का विनिमय प्रत्यक्ष रूप से वस्तुओं तथा सेवाओं में न होकर मुद्रा के माध्यम से होता है। मुद्रा के कारण मनुष्य को अपना समय और शक्ति ऐसे दूसरे व्यक्ति की खोज करने में नष्ट करने की आवश्यकता नहीं रही है
जिसके पास उसकी आवश्यकता की वस्तुएँ हैं और जो अपनी उन वस्तुओं के बदले में उन दूसरी वस्तुओं को स्वीकार करने को तैयार है जो उस पहले मनुष्य के पास है । फलत: मुद्रा ने विनिमय के कार्य को बहुत ही सरल एवं सहज बना दिया है ।
गौण कार्य:
मूल्य संचय का आधार- मुद्रा का दूसरा गौण कार्य मूल्य संचय का आधार है। वस्तुतः मुद्रा मूल्य संचय का भी साधन है वस्तु विनिमय प्रणाली में मुद्रा के अभाव में धन संचय करने में कठिनाई होती थी। मुद्रा के आविष्कार ने इस कठिनाई को दूर कर दिया है।
धन संचय को सफल बनाकर मुद्रा आज के युग में पूँजी संचय तथा बड़े पैमाने के उत्पादन का एकमात्र साधन बन गयी है।

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