Types of Market in Hindi | बाजार के कितने प्रकार होते है, पूरी जानकारी

अर्थव्यवस्था के बढ़ते एक और कदम में बाजार क्या है बाजार के बारे में पूरी जानकारी लेने के बाद आज हम समझेंगे Types of Market in Hindi यानी कि बाजार कितने प्रकार के होते है और इसके बारे में पूरी जानकारी लेंगे:

Types of Market in Hindi (बाजार के प्रकार):

बाजार का या बाजार का ढांचा मुख्य रूप से प्रतियोगिता की मात्रा पर टिकी होती है प्रतियोगिता के आधार पर बाजार की मुख्य रूप से तीन स्थितियां होती हैं-

Types of Market in Hindi:

  1. पूर्ण प्रतियोगिता (उत्तम प्रतियोगिता),
  2. अपारदर्शी प्रतिस्पर्धा (अपूर्ण प्रतियोगिता),
  3. एकाधिकार (एकाधिकार) |

पूर्ण प्रतियोगिता (संपूर्ण प्रतियोगिता):

अर्थशास्त्र की गहरी पूर्ण प्रतियोगिता से अभिप्राय, बाजार की उस स्थिति से है, जिसमें किसी विशेष वस्तु के कई क्रेता-विक्रेता उस वस्तु का दायित्व-विक्रय स्वतंत्रता चालाकी से करते हैं तथा कोई एक क्रेता अन्य डीलर वस्तु के मूल्य को प्रभावित करने में नहीं रहता है।

पूर्ण प्रतियोगिता की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नांकित हैं-

श्रीमती जॉन रॉबिन्सन के अनुसार, “पूर्ण प्रतियोगिता पायो जाती है, जब प्रत्येक निर्माता के उत्पादन के लिए मांग पूर्णतया सरलीकृत होती है। इसका अर्थ यह है कि प्रथम, दावेदार को अधिक होती है किसी एक विक्रेता को निर्माता का उत्पाद यह तथ्य के कुल उत्पादन का एक बहुत ही थोड़ा सा हिस्सा प्राप्त होता है और अन्य सभी क्रेटा दावों के बीच चुनाव की दृष्टि से समान होते हैं, जिससे बाजार पूरी तरह से हो जाता है”

पूर्ण प्रतियोगिता की दशाएँ या विशेषताएँ:

1. क्रेता एवं दावाकर्ता का बाजार में अधिक संख्या: पूर्ण प्रतियोगिता की सबसे अनूठी विशेषता यह है कि बाजार में क्रेता एवं घोषणा की संख्या इतनी अधिक होनी चाहिए कि कोई भी क्रेता अघाचा डीलर अलोन वस्तु की कीमत को प्रभावित करने की स्थिति में न हो।

जब बाजार में बहुत से क्रेता और डीलर होते हैं, तो प्रत्येक डीलर कुल बिक्री मात्रा के कम हिस्से को बेच देता है कि उसकी बिक्री में वृद्धि या कमी करके वह वस्तु की कीमत में परिवर्तन नहीं कर सकता।

इसी प्रकार व्यक्तिगत क्रेता वस्तु की कुल मात्रा का इतना कम हिस्सा खरीदता है कि इसमें कमी या वृद्धि करके वस्तु की कीमत को प्रभावित नहीं कर सकते है

2. भरोसेमंद होने की प्रतियोगिता की दूसरी विशेषता यह है कि विभिन्न फर्मों द्वारा उत्पादित वस्तुओं में विश्वसनीयता के गुण होते हैं। उत्पादन में मान्यता इस अर्थ में होती है कि क्रेता के विचार से विभिन्न फर्मों को वस्तुएँ एक-दूसरे को पूर्ण स्थानापन्न हैं।

उत्पादन में प्रामाणिकता होने के कारण डीलर बाजार में प्रचलित मूल्य से अधिक कीमत नहीं ले सकते, क्योंकि क्रेटा अन्य डीलर से वस्तुएँ खरीद लेंगे। इसलिए सभी निर्मित आकार, रंग, रूप, गुण आदि में कोई अंतर नहीं होता है।

3. फर्मों का स्वतंत्र प्रवेश और बहिर्गमन: पूर्ण प्रतियोगिता के भीतर फर्मों को उद्योग में प्रवेश करने और उद्योग को वापस लेने की पूर्ण स्वतंत्रता है। कर्मों के उद्योग में प्रवेश करने से उद्योग में फर्मों की संख्या में वृद्धि होती है। प्रत्येक कर्म कुल उत्पादन का एक बहुत ही सीधा हिस्सा का उत्पादन करता है

और ऐसी स्थिति में एक फर्म के उद्योग में प्रवेश करने या उद्योग को आकार देने से वस्तु की कीमत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। असामान्य लाभ की स्थिति में फर्म उद्योग प्रवेश कर सकता है और फर्म उद्योग से बहिर्गमन कर सकता है।

4. क्रेता और विक्रेताओं को बाज़ार का पूर्ण ज्ञान: पूर्ण प्रतियोगिता के लिखने वाले क्रेटर्स को इस बात की जानकारी रहती है कि कौन, कौन-सी वस्तु किस मूल्य में मिल रही है। इसी प्रकार को इस बात की पूरी जानकारी रहती है कि कौन-सा डीलर, किस वस्तु को किस मूल्य में बेच रहा है। ऐसी दशा में क्रेता एवं डीलर व्यक्तिगत रूप से वस्तु के मूल्य को प्रभावित नहीं कर पाते।

5. उत्पत्ति की धारणा में पूरी तरह से आकर्षित: पूर्ण प्रतियोगिता की उत्पत्ति से एक व्यवसाय को छोड़कर दूसरा व्यवसाय में जाने की पूरी तरह से बनी रहती है। इसलिए उत्पत्ति के साधन पूर्णरूपेण गतिमान होते हैं। यही कारण है कि पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पत्ति की उत्पत्ति की पारिशमिक उनकी सीमाएँ अनुमत के बराबर निश्चित होती हैं।

6. विक्लो एवं ट्रांसपोर्ट लागतों का अभाव: पूर्ण प्रतियोगिता के लिए सभी उत्पादकों एवं क्रेटा एक दूसरे के बहुत अधिक निकट होते हैं, कि इनमें से विलो एवं ट्रांसपोर्ट लागतों का अभाव पाया जाता है।

7. एक समान मूल्य नीतिपूर्ण प्रतियोगिता के सभी निर्माता एक समान मूल्य नीति का पालन करते हैं अर्थात् वे सभी अपनी वस्तु एक हो मूल्य पर पहचानते हैं।

8. दलाली की कमी: पूर्ण प्रतियोगिता के खुले बाजार में किसी भी प्रकार की प्रविष्टि पर प्रतिबंध नहीं मिलता है। दूसरे शब्दों में, क्रेटा एवं डीलर के वस्तु के बिक्री पर किसी भी प्रकार के प्रतिबंध नहीं होते हैं। आकार के संबंध में तो किसी प्रकार के प्रति नहीं समझ में आता है.

विशुद्ध प्रतियोगिता (शुद्ध प्रतियोगिता):

कुछ समय पहले तक केवल पूर्ण प्रतियोगिता और अस्पष्ट प्रतिस्पर्धा में ही भेद किया जाता था, लेकिन अब एडवर्ड हेस्टिंग्स ज्यामलिन ने पूर्ण और विशुद्ध प्रतियोगिता में अंतर किया है। विशुद्ध प्रतियोगिता को “परमाणुवादी प्रतियोगिता’ के नाम से भी जाना जाता है। किसी समय बाज़ार में ऐसी प्रतियोगिता हो सकती है।

जिसमें एकाधिकारिक तत्वों का अभाव हो सकता है, तब इस को विशुद्ध प्रतियोगिता कहा जाएगा। विशुद्ध प्रतियोगिता के लिए केवल तीन बातों का होना आवश्यक है-

  1. क्रेताओं एवं विक्रेताओं को पर्याप्त संख्या का होना, जिससे वे स्वतंत्रतापूर्वक वस्तुओं का क्रय-विक्र कर सकें, अर्थात् दोनों पक्षों के ऊपर किसी प्रकार का हस्तक्षेप न हो।
  2. वस्तु का समरूप होना, अर्थात् जिस वस्तु का क्रय-विक्रय किया जा रहा है वह वस्तु गुण व आकार- प्रकार में समान होनी चाहिए
  3. फर्मों के प्रवेश और बहिर्गमन की पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए। जिस बाजार में उपर्युक्त तीन बातों का समावेश होता है, उसे विशुद्ध प्रतियोगिता कह सकते हैं ।

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अपूर्ण प्रतियोगिता (Imperfect Competition):

पूर्ण प्रतियोगिता एवं विशुद्ध एकाधिकार बाजार, व्यावहारिक जगत में नहीं पाये जाते। इसीलिए श्रीमती जॉन रॉबिन्सन ने वास्तविक जगत के लिए अपूर्ण प्रतियोगिता तथा प्रो. चैम्बरलिन ने ‘एकाधिकारी प्रतियोगिता को स्वीकार किया है।

अंतः व्यवहार में अपूर्ण प्रतियोगिता को हो महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है, क्योंकि पूर्ण प्रतियोगिता तथा विशुद्ध एकाधिकार की धारणाएँ पूर्णतया काल्पनिक हैं ।

अपूर्ण प्रतियोगिता बाजार की ऐसी अवस्था को कहा जाता है कि जिसमें या तो क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या अधिक नहीं होती अथवा उनकी वस्तु एक रूप नहीं होती अथवा उन्हें बाजार का पूर्ण ज्ञान नहीं होता। ऐसी प्रत्येक दशा में अपूर्ण प्रतियोगिता का जन्म हो जाता है। इन शर्तों के कारण अपूर्ण प्रतियोगिता में माँग वक्र पूर्णतया लोचदार नहीं हो पाता है।

जैसा कि प्रो. लर्नर ने लिखा है कि “अपूर्ण प्रतियोगिता तब पायी जाती है, जबकि एक विक्रेता अपनी वस्तु के लिए एक गिरती हुई माँग रेखा का सामना करता है। इस प्रकार अपूर्ण प्रतियोगिता, पूर्ण प्रतियोगिता एवं एकाधिकार के बीच की अवस्था को कहा जाता है।

अपूर्ण प्रतियोगिता के कारण (Causes of Imperfect Competition):

अपूर्ण प्रतियोगिता के जन्म के प्रमुख कारणों को निम्नलिखित बिन्दुओं के रूप में स्पष्ट किया जा सकता

  1. अल्प संख्या में विक्रेता अपूर्ण प्रतियोगिता के जन्म का प्रमुख कारण यह है कि बाजार में वक्रेताओं की संख्या सीमित होती है, जबकि पूर्ण प्रतियोगिता में बहुत बड़ी संख्या में क्रेता एवं विक्रेता होते हैं।
  2. वस्तु के गुण में अन्तर- अपूर्ण प्रतियोगिता वस्तु के गुण में अन्तर होने के कारण उत्पन्न होती है। विभिन्न उत्पादकों द्वारा उत्पादित एक ही प्रकार की वस्तुओं में काल्पनिक भिन्नता की जाती है। उत्पादक विभिन्न प्रकार के व्यापार चिन्हों और नामों का प्रयोग कर अन्तर करते हैं।
  3. मूल्य में अन्तर अपूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत एक समान गुण वाली वस्तुओं के मूल्य में प्रायः अन्तर पाया जाता है। विज्ञापन और प्रचार के द्वारा उत्पादक एवं विक्रेण अधिक से अधिक क्रेताओं की आकर्षित करके मूल्य में अन्तर करने में सफल हो जाते हैं।
  4. विज्ञापन अपूर्ण प्रतियोगिता का एक मुख्य अंग विज्ञापन तथा प्रचार है। अधिक से अधिक लाभ की प्राप्ति के लिए उत्पादक और विक्रेता अपनी-अपनी वस्तुओं का विज्ञापन एवं प्रचार कर वस्तु को बिक्री में वृद्धि करते हैं। अपूर्ण प्रतियोगिता वाली संस्थाओं के द्वारा विज्ञापन पर भारी मात्रा में व्यय किया जाता है।
  5. परिवहन लागत अपूर्ण प्रतियोगिता के उत्पन्न होने के कारणों में परिवहन लागत भी है। किसी वस्तु की अधिक परिवहन लागत होने से अन्य प्रतियोगी विक्रेता बाजार में नहीं आ पाते तथा विक्रेता उस क्षेत्र में एकाधिकार के समान स्थिति प्राप्त कर लेता है तथा ऊंची कीमतें वसूल करता है ।
  6. क्रेताओं की अज्ञानता अपूर्ण प्रतियोगिता क्रेताओं को अज्ञानता के कारण भी उत्पन्न होती है। अपूर्ण प्रतियोगिता में विभिन्न विक्रेताओं द्वारा लगभग समान वस्तुओं के लिए अलग-अलग मूल्य वसूल किया जाता है।

इसका मुख्य कारण यह है कि क्रेताओं को इस बात का ज्ञान नहीं होता कि कोई वस्तु विभिन्न स्थानों पर किस मूल्य में बेची जा रही है। साथ ही उन्हें यह भी ज्ञान नहीं रहता कि यही वस्तु अन्य विक्रेता से सस्ती मिल सकती है

अपूर्ण प्रतियोगिता के प्रकार (Kinds of Impereect Competition in Hindi):

अपूर्ण प्रतियोगिता के प्रकार (Kinds of Impereect Competition) अपूर्ण प्रतियोगिता मुख्य रूप से तीन प्रकार की होती है-

(अ) दयाधिकार (Doupoly)

(ब) अल्पाधिकार (Oligopoly)

(स) एकाधिकारिक (Monopolistic)

(अ) द्वयाधिकार (Doupoly ) – द्वयाधिकार से आशय, बाजार की ऐसी स्थिति से होता है जिसमें केवल दो ही विक्रेता होते हैं, दोनों विक्रेताओं की वस्तु के एक ही रूप होते हैं और दोनों समान मूल्य नीति का ‘पालन करते हैं । यदि इनमें से कोई भी विक्रेता अपनी मूल्य नीति में परिवर्तन करता है तो उसका प्रभाव दूसरे पर भी अवश्य पढ़ता है।

(ब) अल्पाधिकार (Oligopoly) – अल्पाधिकार बाजार को ऐसी अवस्था को कहा जाता है जिसमें किसी वस्तु के बहुत कम विक्रेता होते हैं और प्रत्येक विक्रेता पूर्ति एवं मूल्य पर समुचित प्रभाव रखता है। भारत के सन्दर्भ में लौह-इस्पात उद्योग अल्पाधिकार के अन्तर्गत रखा जा सकता है। इस उद्योग में टाटा स्टील कम्पनी, हिन्दुस्तान स्टील लिमिटेड, मैसूर स्टील कम्पनीमा बोकारो स्टील कम्पनी आदि शामिल हैं।

(स) एकाधिकारिक प्रतियोगिता (Monopolistic Competition ) – एकाधिकारिक प्रतियोगिता, अपूर्ण प्रतियोगिता का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रूप है। एकाधिकारिक प्रतियोगिता का विचार सर्वप्रथम प्रो. पर चेम्बरलिन द्वारा प्रस्तुत किया गया था। उन्होंने इस बात को स्पष्ट किया कि व्यवसाय में न तो पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है और न हो विशुद्ध एकाधिकार, बल्कि इन दोनों के बीच की स्थिति पायी जाती है।

प्रो. चेम्बरलिन के अनुसार, “एकाधिकारिक प्रतियोगिता बाजार का वह रूप है, जिसमें बहुत सी फर्म कार्य करती हैं और प्रत्येक फर्म मिली-जुली वस्तुएँ बेचा करती हैं, परन्तु उनके द्वारा बेची जाने वाली वस्तुएँ समरूप नहीं होती है। उनमें थोड़ा-बहुत भेद अवश्य पाया जाता है।”

अल्पाधिकार की विशेषताएँ:

  1. विक्रेताओं की संख्या का कम होना,
  2. माँग की अनिश्चितता,
  3. परस्पर विरोधी प्रवृत्तियाँ,
  4. एकाधिकारी तत्व,
  5. कीमत स्थिरता,
  6. फर्मों के प्रवेश एवं बहिर्गमन में कठिनाई,
  7. विज्ञापन एवं बिक्री को प्रोत्साहन,
  8. असंगति ।

चलिए अब अगले Types of Market in Hindi के बारे में बात करते है.

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एकाधिकार (Monopoly):

एकाधिकार शब्द ग्रीक भाषा के दो शब्दों ‘Monox’ तथा ‘Polus” से बना है। Monos का अर्थ होत है एक या अकेला और Polus का अर्थ होता है विक्रेता इस प्रकार. Monopoly शब्द का अर्थ हुआ एक अकेला विक्रेता या एक ही बेचने वाला ।

इस प्रकार, एकाधिकार बाजार की वह स्थिति है जिसमें एक वस्तु का एक ही विक्रेता होता है “बाजार में वस्तु की पूर्ति पर उसका पूरा नियंत्रण होता है।

वस्तु के कोई निकट स्थानापन्न वस्तुएँ बाजार में उपलब्ध नहीं होती है अतः एकाधिकारी द्वारा उत्पादित वस्तु एवं अन्य वस्तुओं के बीच माँग की आदी लोग अत्यन्त कम होती है।

चूँकि एकाधिकारी का अपनी वस्तु को पूर्ति पर पूर्ण नियंत्रण होता है, अतः वह अपने उत्पादित वस्तु के लिए कीमत स्वयं ही निर्धारित करता है। एकाधिकारी वस्तु की कीमत और उत्पादन की मात्र दोनों एक साथ निश्चित नहीं कर सकता। वह दोनों में से कोई एक बात कर सकता है।

एकाधिकार की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित है-

  1. प्रो. लर्नर के अनुसार, “एकाधिकारी का अभिप्राय उस विक्रेता से है, जिसकी वस्तु के लिए माँग क वक्र गिरती हुई रेखा के रूप में होता है।
  2. प्रो. टॉमस के शब्दों में, “विस्तृत अर्थ में एकाधिकार शब्द वस्तुओं या सेवाओं के किसी भी प्रभावपूर्ण कीमत नियंत्रण को व्यक्त करता है, चाहे वह माँग का हो अथवा पूर्ति का, लेकिन संकुचित अर्थ में, इसका प्रयोग उत्पादकों तथा विक्रेताओं के एक ऐसे संघ से होता है, जो कि वस्तुओं तथा सेवाओं की पूर्ति कीमत पर नियंत्र रखता है

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